अब पीड़ित पतियों के बारे में भी सोचा जाए
बंग्लुरु के 34-वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष आत्महत्या केस ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है. खुदकुशी करने से पहले उन्होंने 24 पन्नों का एक विस्तृत आत्महत्या नोट, पुरुष अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रही एक एनजीओ को लिखा और लगभग 84 मिनट का एक वीडियो भी बनाया. इन दोनों में ही उन्होंने न सिर्फ अपनी पत्नी व ससुराल के 3 अन्य व्यक्तियों पर कानून का दुरूपयोग करके उन्हें प्रताड़ित करने के गंभीर आरोप लगाये हैं बल्कि जौनपुर की फैमिली कोर्ट की न्यायाधीश रीता कौशिक पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये हैं. न्यायाधीश पर जहां रिश्वत मांगने के आरोप लगाये गए हैं, वहीं एक आरोप यह भी है कि जब अतुल ने अपनी स्थिति से तंग आकरइन तमाम आरोपों की सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आ सकेगी, लेकिन अतुल की आत्महत्या ने अनेक बुनियादी सवाल खड़े कर दिये हैं. एक समूह के तौर पर महिलाएं तो पीड़ित होती ही हैं, लेकिन क्या व्यक्तिगत तौर पर पुरुष भी वैवाहिक संबंधों में पीड़ित हो सकते हैं? पितृसत्तात्मक समाज से क्या पुरुषों को परेशानी नहीं होती है? कानून का दुरुपयोग होता है, अदालतें भी अक्सर पक्षपात कर बैठती हैं, लेकिन क्या घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, दहेज आदि से संबंधित कानून आवश्यकता से अधिक महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं कि उनका दुरुपयोग पुरुषों व उनके परिवार के सदस्यों को प्रताड़ित करने केअधिकतर लोगों का ख्याल है कि पुरुषों पर हमेशा झूठे आरोपों की तलवार लटकी रहती है. इन अंदेशों को सोशल मीडिया तो बढ़ा चढ़ाकर पेश करता ही है, अक्सर पुलिस व अदालतों कि कार्यवाही भी इन्हें बल प्रदान कर देती है. हर सांसारिक संस्था पुरुष निर्मित है और पुरुष केंद्रित है. ईश्वर भी पुरुष ही है, शासक पुरुष हैं, उद्योगपति पुरुष हैं, अधिकतर न्यायाधीश पुरुष हैं और दफ्तरों के बॉस पुरुष हैं. सांसद पुरुष हैं, सदन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट ही क्यों आरक्षित की गईं हैं, 50 प्रतिशत क्यों नहीं और 2029 से इस आरक्षण को लागू करने का क्या औचित्य है, अभी से क्यों नहीं? दशकों के फेमिनिज्म ने महिलाओं की महत्वाकांक्षाओं में इजाफा किया है. वह बराबरी चाहती हैं समाज में, वेतन में, अपने शरीर व जीवन पर अपना नियंत्रणको बुरा लगता है. लड़कियां जब स्कूलों में अच्छा प्रदर्शन करती हैं तो इसे प्राकृतिक व्यवस्था का उल्लंघन और व्यक्तिगत असफलता समझा जाता है. घर के संचालक के रूप में जब उनकी भूमिका पर सवाल उठाये जाते हैं, तो पुरुषों का आत्मविश्वास डगमगा जाता है, जिसकी भरपाई वह अन्य भूमिकाओं में नहीं कर पाते हैं. महिलाएं पुरुषों से बेहतर इंसान नहीं हैं. लेकिन हमारे व्यक्तिगत टकराव में भी सामाजिक पैटर्न होता है, जोकि पितृसत्तात्मक नियमों पर आधारित होता है. चूंकि महिलाएं खुद को कमजोर समझती हैं, इसलिए वह पुरुषों के जरिये मान्यीकरण व पॉवर की तलाश करती हैं. यह भावनात्मक युद्ध उन महिलाओं में प्रतिबिम्बित होता है, जो हावी होने की कोशिश करती हैं. इसकी जड़ें बुनियादी असमता व विभाजन में हैं. लड़कों को सिखाया जाता है कि वह अपनी भावनाओं को काबू में रखें और अपने दर्द को गुस्से से छुपायें. परिवार, नेच व कार्यस्थल के नियम पुरुषों को सिखाते हैं कि ताकत से अपना वर्चस्व कायम करें.